शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

मेरी एक कविता "परिचय सम्मेलन से लौटते हुए"

                     परिचय सम्मेलन से लौटते हुए

जैसे बाज़ार
वैसी ही हड़बड़ी
जैसे चिड़िया घर के पाँखी
वैसे ही उनके पंख कटे-कटे से

सब कुछ जैसे उड़ता हुआ
जैसे सवालात्
वैसे ही लोग अपनी-अपनी आँखों समेत

जैसी उम्र
वैसी ही रंगा-पुता मन
जैसे सुबह-सुबह का स्वप्न था यह सब

सोचती है वह
परिचय सम्मेलन से लौटते हुए

सोचती है वह
कितना कुछ बदल गया
सल्लो से हो गई संध्या
जैसे बिट्टू से बेटी

उसकी फ्राक साड़ी हो गई
फड़फड़ा कर उड़ती हुई
जैसे माँ का उत्सुक चेहरा
और पिता का नींद हो
या गुड़िया की हँसी
जो खत्म हो जाती है चाबी के साथ

परिचय सम्मेलन से लौटते हुए
सोचती है वह
घर देहरी के बाहर भी लोग हैं
बाज़ार में बैठे हुए

और ....और भी बहुत कुछ है
स्वप्नों के होते हुए भी
परिचय के इस समुद्र में..
गुम होता हुआ....

जैसे वह............
जैसे उनका परिचय......


                                    पथिक तारक

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें