सोमवार, 10 सितंबर 2012

                       बाँध-एक

नदी यहाँ से बँधेगी
उस पहाड़ तक

पानी ही पानी होगा
सिर्फ पानी

जो नदी के साथ-साथ हैं
अब नदी उनके साथ नहीं होगी

              -0-

                  बाँध-दो

यह त्याग भूमि है
उनके लिए पाठ हो कि
बच्चों के साथ बढ़े पेड़ो को त्यागें
नदी को त्यागें
 त्यागें, पुरखों को जो सोये रह गये हैं
नदी की गोद  में

बाज़ार ने तय कर दी है
बिजली उनकी और... उनकी होगी
उनके जल से उपजे अन्न किसी और के
उनके हिस्से की नदी पर बाँध होगा
और बाँध उनका नहीं

इस खेल में 
यह भी तय है
नदी पर कुछ भी न बोला जाये
न ही सुना जाये...


                              पथिक तारक


सोमवार, 27 अगस्त 2012

बुद्ध को खोने का डर


अभी भी बहुत कुछ है
जिसे प्यार कर सकूँ
माँ-पिता, पत्नी-बच्चे
और नौकरी अलावा भी

हवा
जिसके पास रंग है सबके लिए

आवाज़े भी हैं टटोलती हुई
यहाँ से और वहाँ से भी
जैसे कि सबसे नज़दीकी मैं ही हूँ उसके
जब मैं कहता हूँ हवा से प्यार करूँ
तो लगता है यहाँ ठहरे मुझे  बहुत देर हो गई है

रात
जिसे बिना किसी के कहे
 चाहूँ जितने खाने में बाँटू
पूरा अपने पास रखू या दे दूँ सपनों को
ऐसा करने में पड़ताल कर सकूँगा अंधेरे की
और बता पाउँगा ठीक-ठीक पहचान अपने सपनों की

 जब मैं कहता हूँ रात से प्यार करूँ
तो दिन के उजाले का छदम भी टूटता है

और यहीं
अपने पर यकीन न करूँ कहने वाला
कोई नहीं होता

दु:ख
इसमें गुंजाईश है कि-
बाँट सकूँ अपने फेफड़े की हवा
पोर-पोर अगुलियों को भी
और हो जाऊ खाली
गुंजाईश यह कि जाँच सकूँ
जिसे प्यार करता हूँ

 जब मैं कहता हूँ  दु:ख से प्यार करूँ
तो बुद्ध को खोने का डर नहीं होता...


                                  पथिक तारक


बुद्ध को खोने का डर


अभी भी बहुत कुछ है
जिसे प्यार कर सकूँ
माँ-पिता, पत्नी-बच्चे
और नौकरी अलावा भी

हवा
जिसके पास रंग है सबके लिए

आवाज़े भी हैं टटोलती हुई
यहाँ से और वहाँ से भी
जैसे कि सबसे नज़दीकी मैं ही हूँ उसके
जब मैं कहता हूँ हवा से प्यार करूँ
तो लगता है यहाँ ठहरे मुझे  बहुत देर हो गई है

रात
जिसे बिना किसी के कहे
 चाहूँ जितने खाने में बाँटू
पूरा अपने पास रखू या दे दूँ सपनों को
ऐसा करने में पड़ताल कर सकूँगा अंधेरे की
और बता पाउँगा ठीक-ठीक पहचान अपने सपनों की

 जब मैं कहता हूँ रात से प्यार करूँ
तो दिन के उजाले का छदम भी टूटता है

और यहीं
अपने पर यकीन न करूँ कहने वाला
कोई नहीं होता

दु:ख
इसमें गुंजाईश है कि-
बाँट सकूँ अपने फेफड़े की हवा
पोर-पोर अगुलियों को भी
और हो जाऊ खाली
गुंजाईश यह कि जाँच सकूँ
जिसे प्यार करता हूँ

 जब मैं कहता हूँ  दु:ख से प्यार करूँ
तो बुद्ध को खोने का डर नहीं होता...


                                  पथिक तारक


रविवार, 18 मार्च 2012

मेरी कुछ कविताएं आपके लिये...........अस्पताल में" चार कविताएँ"

"अस्पताल में"  एक

उसका तड़पना पुकारना रोना
फिर चुप्पी
यहीं पत्नी अपनी सांस से
उनकी सांस टटोलती है
और ज्यादा न जी पाने के
 उनके से
उनके होने के यकीन को
पास, और पास खीचती पत्नी
एक-एक सांस के बदले उन्हे
उनके साथ बिताये दस- दस बरस लौटाती
एक साथ दो जीवन जीती जाती है
                    0

"अस्पताल में" दो

उनकी आवाज़ है कि
दूर से आ रही है थरथराती हुई
उनके हाथ उठते हैं
तो बस बुलाने के लिए
उनकी सोच इधर- उधर से होकर
अटक जाती है पत्नी के माथे पर
पत्नी किसे आवाज़ दे
किसे बुलाये
सोचे तो भी क्या  ?
वह तो  बस
वहीं से निकल कर
वहीं लौटना जानती है.
           0

"अस्पताल में" तीन


उनकी देह अभी भी है
आपरेशन टेबल पर

डाक्टर जूझ रहे हैं
उनके गुर्दे,आँत लहू और सांस से


दरवाज़े के पार
पत्नी के काँधे पर अभी भी
उन्ही का हाथ है
और यह भी कि
नहीं, बिलकुल नहीं .
            0

"अस्पताल में" चार

वह अभी बेहोश है
बंधुओं और वे जो अपने कह जाते हैं के
ज़रुरी काम निकल आये हैं

वह बेहोशी में
पत्नी से कहते रहे हैं
कुछ भी माँगना मत इनसे ,हिम्मत तक भी
वे नहीं दे सकेगें
मेरे पास जो है कुछ के लिए कम होगा

पत्नी के पास यहाँ कोई नहीं है
जिसे बताये कि
उसने कभी हिसाब रखा ही नहीं
                 0

                                        पथिक तारक









सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

मेरी एक कविता "आदमी के रंग के बारे में "

                            आदमी के रंग के बारे में

चित्रकार कहता है
रंग बस उतने ही होते हैं
जितने की चिड़िया ...............
द्ब और आसमान में होते हैं

चित्रकार कहता है
आदमी के भी अपने रंग होते हैं
सबसे अलग,
इतने की बदलते ही रहे
कुछ के तो रंग ङोते ही नहीं

चित्रकार कहता है
हवा का कोई रंग नहीं होता
पेड़ चिड़िया और आदमी.... ही हवा में
अपना रंग छोड़ते हैं

हवा ही है जो आदमी को
समय की खुटी पर टाँग देता है
उसके अपने रंग के हिसाब से.


                                    पथिक तारक

रविवार, 8 जनवरी 2012

मेरी एक कविता "नर्मदा का प्रेम "

1989 की एक शाम या कहूँ पूरी की पूरी  रात ओंकारेशवर में नर्मदा के घाट को अपना सिरहाना बना कर नर्मदा को ,उसकी सिसकियों , उसकी रुदन को सुनता रहा.तब मैं मालवा के लोक गायको के दल के  साथ था जो पूरी रात घाट पर नर्मदा को गाते रहे........ दरअसल एक पौरानिक किवदंति  ज़ेहन में बार-बार  आ रही थी, जो नर्मदा और सोन के प्रेम ,विछोह और रुठने को लेकर है.अमरकंटक में  दोनों  नदी एक जगह से निकालकर जिस तरह  एक  दूसरे के विपरीत दिशाओं में ही नहीं बहती हुई बल्कि दो अलग महासागरों में समा जाती है .अमरकंटक में जहाँ सोन नदी 350 फीट नीचे छलाँग लगा कर बिना मुड़कर पीछे देखे आगे बढ़ जाती है लेकिन नर्मदा   ठिठक- ठिठक आगे बढ़ती    है, अमरकंटक से आगे जबलपुर गौरी घाट, भेड़ाघाट, होसंगाबाद और ओंकारेशवर ....और ... और  भी जगहों पर नर्मदा को देखकर लगता है जैसे थोड़ी रुक कर सोन के आने का इंतज़ार करती है और  फिर सिसकति हुई आगे बढ़ जाती है .यह प्रेम ही है ... है  न..
नर्मदा के इस प्रेम  को   आप सभी से बाँटते हुए मेरी ये कविता .......

                            नर्मदा का प्रेम

सोन को याद करते हुए
छू लिया मैंने
नर्मदा का जल
लगा नर्मदा ठिठक सी गयी

दोहराते हुए
सोन की पुकार
ओ नर्मदे.....नर्मदे....
डुबकी लगायी मैने
नर्मदा के जल में
सिमटती सी
मेरे अंगों को भिगोती
दूर-दूर तक फैल गयी नर्मदा

बना कर सिरहाना
नर्मदा के घाट को
देखता रहा मैं नदी को
नर्मदा सिसकती ,रोती रही रात-रात भर

सोन....ओ सोन..........
मैं बड़ी.........
बहुत बड़ी हो गई हूँ मैं .


                                  पथिक तारक