रविवार, 8 जनवरी 2012

मेरी एक कविता "नर्मदा का प्रेम "

1989 की एक शाम या कहूँ पूरी की पूरी  रात ओंकारेशवर में नर्मदा के घाट को अपना सिरहाना बना कर नर्मदा को ,उसकी सिसकियों , उसकी रुदन को सुनता रहा.तब मैं मालवा के लोक गायको के दल के  साथ था जो पूरी रात घाट पर नर्मदा को गाते रहे........ दरअसल एक पौरानिक किवदंति  ज़ेहन में बार-बार  आ रही थी, जो नर्मदा और सोन के प्रेम ,विछोह और रुठने को लेकर है.अमरकंटक में  दोनों  नदी एक जगह से निकालकर जिस तरह  एक  दूसरे के विपरीत दिशाओं में ही नहीं बहती हुई बल्कि दो अलग महासागरों में समा जाती है .अमरकंटक में जहाँ सोन नदी 350 फीट नीचे छलाँग लगा कर बिना मुड़कर पीछे देखे आगे बढ़ जाती है लेकिन नर्मदा   ठिठक- ठिठक आगे बढ़ती    है, अमरकंटक से आगे जबलपुर गौरी घाट, भेड़ाघाट, होसंगाबाद और ओंकारेशवर ....और ... और  भी जगहों पर नर्मदा को देखकर लगता है जैसे थोड़ी रुक कर सोन के आने का इंतज़ार करती है और  फिर सिसकति हुई आगे बढ़ जाती है .यह प्रेम ही है ... है  न..
नर्मदा के इस प्रेम  को   आप सभी से बाँटते हुए मेरी ये कविता .......

                            नर्मदा का प्रेम

सोन को याद करते हुए
छू लिया मैंने
नर्मदा का जल
लगा नर्मदा ठिठक सी गयी

दोहराते हुए
सोन की पुकार
ओ नर्मदे.....नर्मदे....
डुबकी लगायी मैने
नर्मदा के जल में
सिमटती सी
मेरे अंगों को भिगोती
दूर-दूर तक फैल गयी नर्मदा

बना कर सिरहाना
नर्मदा के घाट को
देखता रहा मैं नदी को
नर्मदा सिसकती ,रोती रही रात-रात भर

सोन....ओ सोन..........
मैं बड़ी.........
बहुत बड़ी हो गई हूँ मैं .


                                  पथिक तारक


2 टिप्‍पणियां: