सोमवार, 12 सितंबर 2011

कविता संग्रह "अपना ही विस्तार" से एक कविता

जिक्र

बात इतनी कि
जंगल का जिक्र हो
और मन हरा हो जाये

बात इतनी कि
पहाड़ का जिक्र हो
ओर आदमी
अपना कद साफ-साफ पहचान सके

बात इतनी कि
नदी का जिक्र हो
तब आदमी डूब -डूब जाये उसमें
और उसका सुखा हृदय हो जाये लबालब

बस बात इतनी ही कि
रस्ते का जिक्र हो
तो आदमी को याद आ जाये
कि उसे जाना कहाँ है.

                       पथिक तारक















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