रविवार, 25 सितंबर 2011

अपने कवि मित्र एकान्त के लिए एक कविता

                      दोस्त का आगमन


बरसों बाद
घर की ड्योढ़ी पर
आ खड़ा हुआ दोस्त

खिल उठी मेरी बाँहे
दोस्त का ठहाका गूँजा

दोस्त की बातों में शामिल हई
उसकी नौकरी, शहर
शहर के दोस्त
और दोस्तों की बातें

मैंने
अपने बिसरे दिन याद किये

घर की छप्पर ने
दोस्त के कन्धे छू लिए

मुझे मालूम हुआ
शहर में उसके पास
अटारी वाला घर है.

दोस्त ने कोसा
मेरे बौनेपन को
मैंने देखा
वह अब पूरे छ: फुट का है

दोस्त ने याद दिलाया
मेरा कालापन
मैंने पाया
उसका रंग और निखर आया है

पूरे समय  दोस्त
खुरचता रहा
घर के उखड़ते पलस्तर को

मैं चिन्तित हुआ
बरसात को ले कर

दोस्त हँसता रहा
हर पुरानी चीजों को ले कर
मैं केवल शामिल होता गया

गाँव से
जल्दी ऊब कर जाता दोस्त
मुझे एकदम नया लगा

मैंने अपने पुराने दोस्त को
खारिज नहीं किया


                                पथिक तारक











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