शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

मेरी एक कविता" चीटियों के बहाने"

                             चीटियों के बहाने

 चीटियाँ
 कतारबध्द एक के पीछे एक
अपने-अपने अण्डों को सीने से लगाये
घर  देहरी,चौखट और दीवार फाँद
उलट कर रख देती है मौसम का पन्ना

चीटियाँ 
मौसम   के आते-जाते
मौसम के जाते- जाते
छेद डालती है पृथ्वी का सीना
और बना लेती है उसमें अपना घर

चीटियाँ  
कभी रोटी के टुकड़े
कभी चॅावल के दाने
तो कभी गुड़ की डली
ढो कर
सहेज लेती है
पूरा का पूरा मौसम

इस मौसम से उस मौसम...
और उस मौसम से उस मौसम तक

चीटियाँ
अपने-अपने  मोर्चे पर
अकेली नहीं होती.

                                 पथिक तारक










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